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Read this article in Hindi to learn about the various theories of audition that will help in understanding the mechanism of hearing in humans.
1. अनुनाद अथवा पियानो सिद्धान्त (Resonance or Piano Theory):
जर्मन देहशास्त्री (Anthropologist) हेल्महोज ने उन्नीसवीं शताब्दी में इस सिद्धान्त की प्रतिपादन किया । इस सिद्धान्त के अनुसार कान की बेसलर झिल्ली में पियानो की तरह के तन्तु होते हैं । जब बेसलर झिल्ली के इन तन्तुओं को ध्वनि तरंगें उद्दीप्त करती हैं और उनके उद्दीप्त होने की सूचना मस्तिष्क में पहुँचती है, हमें तभी श्रवण सवेदना होती है ।
इसके अतिरिक्त हेल्महोज की यह भी धारणा थी कि बेसलर झिल्ली के इन तन्तुओं की लम्बाई भिन्न-भिन्न होती है, जिसके कारण उन्हें भिन्न-भिन्न तरंग दैर्ध्य (Wave Length) की ध्वनि तरंगें उद्दीप्त करती हैं ।
2. अनुनाद क्षेत्र सिद्धान्त (Resonance Place Theory):
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हेल्महोज के श्रवण सिद्धान्त को ही संशोधित करके इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया । इस सिद्धान्त की भी यही मान्यता है, कि जब ध्वनि तरंगें बेसलर झिल्ली से टकराती हैं । ये ध्वनि तरंगें भिन्न-भिन्न आवृत्तियों वाली होती हैं, जो कि झिल्ली के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों को उत्तेजित करती हैं ।
इस प्रकार इस सिद्धान्त द्वारा अनुनाद सिद्धान्त में यह संशोधन किया गया है, कि अनुनाद सिद्धान्तानुसार बेसलर झिल्ली को अविभाजित माना है, जबकि इस सिद्धान्त में यह कहा गया है, कि बेसलर झिल्ली कई भागों में बँटी हुई होती है ।
हालाँकि इस सिद्धान्त में अनुनाद सिद्धान्त की अपेक्षा स्पष्टता अधिक है, किन्तु फिर भी इसमें यह स्पष्ट नहीं किया जा सका कि जब ध्वनि तरगें बेसलर झिल्ली से टकराती हैं, तो इनसे आवेग किस प्रकार बनता है ।
3. आवृत्ति सिद्धान्त (Frequency Theory):
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कई विद्वानों ने किया । सबसे पहले इस सिद्धान्त का प्रतिपादन रदरफोर्ड (Rutherford) ने 1886 ई. में किया था । फिर रिटसन ने इस सिद्धान्त को परिमार्जित करके प्रस्तुत किया । इस सिद्धान्त को टेलीफोन सिद्धान्त भी कहा जाता है ।
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इसका कारण यह है, कि इस सिद्धान्त में कान के कार्य को टेलीफोन के रिसीवर की भांति माना गया है, अर्थात् जिस प्रकार टेलीफोन का रिसीवर कार्य करता है, उसी प्रकार कान भी कार्य करता है, इस सिद्धान्त की यह मुख्य मान्यता है, कि जब धनि-तरंग कान में पहुँचती है, तब कान में स्थित बेसलर झिल्ली उन्हें आवेग में परिवर्तित कर देती है और जब यह आवेग श्रवण स्नायुओं द्वारा मस्तिष्क में पहुँचता है, तभी हमें श्रवण की संवेदनशीलता होती है ।
इस सिद्धान्त को आवृत्ति सिद्धान्त इसलिये कहा जाता है, क्योंकि इस सिद्धान्त के अनुसार श्रवण तरंग जितने अधिक वेग से आती है, बेसलर झिल्ली के तन्तु उतनी ही आवृत्ति को आवेग में बदल देते हैं । यह सिद्धान्त इसलिये अधिक उपयुक्त नहीं है, क्योंकि रदरफोर्ड ने इसमें यह स्पष्ट नहीं किया है, कि बेसलर झिल्ली के तन्तु एक सेकण्ड में कितनी बार स्पन्दित होते हैं?
4. संकालिक या वली सिद्धान्त (Volley Theory):
वेबर तथा ब्रे (Weber and Bray) ने आवृत्ति सिद्धान्त को संशोधित करके 1930 में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । इस सिद्धान्त के अनुसार भी ध्वनि तरंगें बेसलर झिल्ली तन्तुओं के द्वारा आवेग में परिवर्तित होकर ही मस्तिष्क तक पहुँचती हैं ।
इस प्रकार आवेग के मस्तिष्क में पहुँचने पर वहाँ ध्वनि विश्लेषण होता है । इसके अतिरिक्त वेबर तथा ब्रे ने आवृति सिद्धान्त की इस कमी को दूर किया कि बेसलर झिल्ली तन्तु एक सेकण्ड में कितनी बार स्पन्दन करते हैं ।
उन्होंने बताया कि बेसलर झिल्ली के तन्तु उपसमूहों में बटइ होते हैं तथा तन्तुओं का स्पन्दन 5000 कम्पन/सेकण्ड से अधिक नहीं होता, इसी कारण 5000 कम्पन/सेकण्ड से अधिक आवृत्ति वाली ध्वनि तरंगों से बेसलर झिल्ली उद्दीप्त नही होती है ।
श्रवण के सिद्धान्तों का अभी आपने अध्ययन किया । दृष्टि एवं श्रवण संवेदना के अतिरिक्त अन्य प्रकार की संवेदनाएँ भी होती हैं, जिनका उल्लेख अध्यायके आरम्भ में संक्षिप्त पंक्तियों के अन्तर्गत किया गया है । ये सवेदनाएँ त्वचीय, रासायनिक एवं स्वाद संवेदनाओं के अन्तर्गत जानी जाती हैं ।