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Here is an essay on the ‘Nervous System’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. ‘तन्त्रिका तन्त्र’ का परिचय (Introduction to Nervous System):
शरीर रूपी जटिल यन्त्र के विभिन्न यन्त्रों के कार्यों में सामजस्य उत्पन्न करने के लिए शरीर के अन्तर्गत एक विशेष तन्त्र रहता है, जिसे ‘तन्त्रिका तन्त्र’ कहते हैं । यह शरीर का महत्वपूर्ण तन्त्र है, क्योंकि यह शरीर के और सभी तन्त्रों पर नियन्त्रण का कार्य करता है ।
मनुष्य के शरीर में कई सस्थान होते हैं, और प्रत्येक संस्थान के अंग मिलकर उस कार्य को पूरा करते हैं । जैसे: मुँह, आमाशय, पक्वाशय, छोटी आँत, बड़ी आँत मिलकर पाचान संस्थान भोजन का पाचन, अभिशोषण, चयापचय का कार्य करता है । इसी तरह अन्य संस्थान भी अपना-अपना कार्य करते हैं ।
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यह संस्थान हमारे शरीर की समस्त ऐच्छिक तथा अनैच्छिक क्रियाओं पर नियन्त्रण रखता है शरीर में उत्पल संवेदनाएँ मस्तिष्क तक पहुँचाती हैं, उतनी ही तेजी से हमें प्रेरणा प्राप्त होती है और हम किया के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं । तन्त्रिका कोशिका की संरचना को निम्न चित्र द्वारा समझा जा सकता है ।
हमारा तन्त्रिका संस्थान असंख्य तन्त्रिका कोशिकाओं से मिलकर बना होता है । इसकी बनावट अन्य कोशिकाओं की अपेक्षा थोड़ी शिला होती है ।
इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि शरीर वृद्धि के साथसाथ जन्म के समय प्राप्त तन्त्रिका कोशिकाओं का आकार बढ़ता है, जबकि अन्य कोशिकाएँ शरीर में नष्ट होती हैं और नयी बनती हैं, पर तन्त्रिका कोशिका नष्ट हो जाने पर उसके स्थान पर नयी कोशिका नहीं बनती हैं ।
Essay # 2. तन्त्रिका कोशिका या न्यूरॉन (Nervous Cell or Neuron):
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तन्त्रिका संस्थान का पूर्ण कार्य तन्त्रिका कोशिकाओं द्वारा ही होता है ।
तन्त्रिका कोशिकाओं के दो मुख्य भाग होते हैं:
(1) कोशिका पिण्ड:
यह कोशिका का ऊपरी भाग होता है इसी भाग मे केन्द्रक होता है । कोशिका पिण्ड के भाग से अनेक तन्तु निकलते हैं जिन्हें ‘पार्श्वतन्तु’ (Dendrite) कहते हैं । इनकी पुन: उपशाखाएँ हो जाती हैं । ये शाखाएँ वास्तव में जीवद्रव्य के निचले भाग होते हैं जिनके ऊपर की ओर झिल्ली रहती है नीचे की ओर निकली लम्बी शाखा कोशिका का दूसरा भाग होता है, इसे हम अक्ष तन्तु (Axon) कहते हैं ।
(2) अक्ष तन्तु (Axon):
यह झिल्ली के नीचे की ओर से निकलती पतले-पतले ब्रुश के समान होते हैं । इन्हें (End Brush) कहते हैं । इन्हीं की सहायता द्वारा तन्त्रिका कोशिका एक चैन के समान जुड़ी रहती है । तन्त्रिका कोशिका भूरे रंग की होती है । तन्त्रिका कोशिका से निकलने वाले तन्तु सफेद रंग के होते हैं, जिन्हें ऊतक भी कहा जाता है ।
तन्त्रिका कोशिका के पार्श्वतन्तु सन्देश ग्रहण करते हैं । यह सन्देश को दूसरी तन्त्रिका कोशिका के पार्श्वतन्तु में पहुँचाते हैं । इस प्रकार न्यूरॉन की चेन द्वारा संदेश मस्तिष्क तक पहुँचाता है । दो न्यूरॉन के बीच जो दूरी होती है, उसे साइनैप्स कहते हैं ।
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युग्मानुबन्ध (Synapsis):
लगभग 100 अरब वर्ष पूर्व से ही मनुष्य में पृथक् तन्त्रिका कोशिकाएँ होती हैं । प्रत्येक तन्त्रिका कोशिकाओं का अक्ष तन्तु स्वतन्त्र छोर पर अनेक छोटीछोटी शाखाओं में बँटा होता है जो निकटवर्ती तन्त्रिका के डेन्टाइट्स पर फैला रहता है ।
इन शाखाओं के स्वतन्त्र छोर घुण्डीनुमा होते हैं, इनके और उन रचनाओं के बीच जिन पर ये फैली रहती हैं, प्राय: कोई भौतिक स्पर्श नहीं होता है वरन् दोनों के बीच एक सँकरा तरल से भरा बन्द-सा स्थान बचा रहता है, जिसे सिनैप्टिक विदर (Synaptic Cleft) कहते हैं । इसी सन्धि स्थानों को युग्मानुबन्ध (Synapsis) कहते हैं ।
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शरीर की अधिकांश तन्त्रिका कोशिकाओं को दो भागों में बाँटा जाता है:
(1) संवेदी तन्त्रिका कोशिकाएँ (Sensory Nervous Cells);
(2) चालक तन्त्रिका कोशिकाएँ (Motor Nervous Cells) |
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(1) संवेदी तन्त्रिका कोशिकाएँ (Sensory Nervous Cells):
सन्देशवाहक में वे तन्त्रिकाएँ होती हैं जो कि बाहरी जगत की उत्तेजनाओं से प्रभावित होती हैं जिसके कारण इनमें संवेदना उत्पन्न होती है । उस संवेदना के कारण प्राप्त सूचना को ये तन्त्रिकाएँ मस्तिष्क व सुषुम्ना में पहुँचाती हैं । हमारे शरीर में सन्देश अंग आँख, नाक और कान होते हैं ।
(2) चालक तन्त्रिका कोशिकाएँ (Motor Nervous Cells):
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चालक तन्त्रिकाएँ मुख्यत: मस्तिष्क से प्रेरणाओं को प्रतिक्रियाओं को करने वाली पेशी या अस्थि कोशिकाओं में पहुँचाती हैं चालक तन्त्रिकाएँ आँख, नाक, स्वर यन्त्र व जीभ आदि अंगों में पायी जाती हैं ।
इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रकार की तन्त्रिका कोशिकाएँ भी पायी जाती हैं जो ‘मिश्रित तन्त्रिका कोशिकाएँ’ कहलाती हैं । इसके अन्तर्गत संवेदी तथा चालक दोनों प्रकार की तन्त्रिकाएँ पायी जाती हैं ।
इस प्रकार एक ही तन्त्रिका सूत्र दोनों कार्य अर्थात् सूचनाओं को लाने-लेते-जाने का कार्य करता है । ऐसी तन्त्रिकाएँ शरीर में प्राय: आँख, ऊपरी होठ, निचली पलक, दाँतों, कान, जीभ, निचले जबड़े, गर्दन, स्वाद कलिकाओं, स्वर यन्त्र में पायी जाती हैं ।
प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Reflex Reactions):
वातावरण के परिवर्तन के प्रति मनुष्य की प्रतिक्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं- ऐच्छिक प्रतिक्रियाएँ व अनैच्छिक प्रतिक्रियाएँ । ऐच्छिक प्रतिक्रियाएँ मानव की चेतना एवं इच्छा के अनुसार सुनियोजित एवं सउद्देश्य होती हैं । अत: इन पर मस्तिष्क का नियन्त्रण होता है जैसे – भोजन करना, भागना, चलना इत्यादि । इसके विपरीत अनैच्छिक प्रतिक्रियाएँ मानव की चेतना शक्ति के अधीन नहीं होती हैं ।
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अनैच्छिक प्रतिक्रियाएँ भी दो प्रकार की होती हैं – प्रतिक्षेप या प्रतिवर्ती (Reflex) व स्वायत्त (Autonomic) । प्रतिवर्ती क्रियाएँ प्राय: स्पाइनल तन्त्रिकाओं द्वारा सम्यता होती है; जैसे – पकवान देखकर मुँह में पानी आना, आंखों के आगे अचानक किसी वस्तु के आ जाने पर या तेज प्रकाश पड़ने पर पलकों का झपकना इत्यादि । यह सब अनैच्छिक प्रतिवर्ती क्रियाएँ होती हैं ।
प्रतिवर्ती क्रिया बहुत जल्दी होती हैं क्योंकि मेरुरज्जु संवेदी सूचनाओं को एक दर्पण की भांति ज्यों-की-त्यों तुरन्त चालक प्रेरणाओं के रूप में लौटा देता है । इसलिए इन्हें प्रतिवर्ती क्रियाएँ कहा जाता है । यह भी दो प्रकार की होती हैं- अबन्धित तथा अनुबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ ।
(i) अबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Unconditional Reflexes):
ये वंशगत प्रतिवर्ती क्रियाएँ होती हैं जिन्हें मनुष्य इच्छा से इनमें परिवर्तन नहीं कर सकता है; जैसे- खानदानी गायक आदि होना ।
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(ii) अनुबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Conditional Reflexes):
ये क्रियाएँ प्रशिक्षण द्वारा होने लगती हैं । प्रारम्भ में इन क्रियाओं पर मस्तिष्क का नियन्त्रण होता है, लेकिन बाद में भली- भांति स्थापित हो जाने पर यह आदत बन जाती हैं; जैसे – नाचना, साइकिल चलाना, तैरना, खेलना आदि ।
मस्तिष्क तथा व्यवहार (Brain and Behaviour):
मस्तिष्क हमारे शरीर में मुख्य नियन्त्रक का कार्य करता है । यह तन्त्रिका ऊतकों (Nervous Tissue) का बना एक कोमल एवं खोखला अंग होता है । यह खोपड़ी की कपाल गुहा (Ganial Cavity) में सुरी क्षत बन्द रहता है इसे सहारा देने और बाहरी आघातो दबावों आदि से सुरक्षा करने हेतु तीन झिल्लियों का आवरण होता है ।
बाहर से भीतर की ओर ये निम्नलिखित होती हैं:
(1) दृढ़तानिका या ड्यूरामेटर (Duramatter):
कपाल गुहा के चारों ओर की अस्थियों पर मढी, मोटी, दृढ़ एवं लोच विहीन, सबसे बाहरी झिल्ली होती है । इसमें कोलैजन तन्तुओं की ज्यादा संख्या पायी जाती है ।
(2) जालतानिका या ऐरेक्नाऐड (Arachnoid):
यह आवरण मध्य में पाया जाता है । इसमें रक्त नलिकाएँ अनुपस्थित होती हैं लेकिन इसमें महीन जाली पायी जाती है इससे तथा दृढ़तानिका के बीच सँकरे खाली स्थान में एक तरल भरा रहता है जो दोनों तानिकाओं को नम बनाकर रखता है ।
(3) मृदुतानिका या पाइमेटर (Piamatter):
यह मस्तिष्क पर चढी हुई सबसे भीतर की ओर तथा कोमल झिल्ली होती है । इसके अनेक महीन कण रक्त नलिकाओ के जाल फैला देता है मस्तिष्क की गुहा में कुछ क्षारीयसा द्रव भरा रहता है यह द्रव मस्तिष्क को सहारा देता है इसे नम बनाये रखता है । इस द्रव को सेरीब्रोस्पाइनल द्रव (Cerebrospinal Fluid) कहते हैं ।
मस्तिष्क की बाहरी संरचना (Outer Structure of Brain):
मानव में सबसे ज्यादा विकसित मस्तिष्क पाया जाता है । इसका आकार भी बहुत बड़ा होता है इसमें अन्य सभी जानवरों के मुकाबले सोचने-समझने की क्षमता पायी जाती है । मस्तिष्क को तीन भागों में बाँटा जाता है ।
प्रमस्तिष्क मेरु-तरल का संगठन (Cerebrum Spinal-Liquid Process):
यह एक तरल पदा थ होता है जो रंगहीन तथा पारदर्शी होता है । इसमें 20-30% प्रोटीन, 50-80% ग्लूकोज, 10-30% ग्राम यूरिया और पोटैशियम, कैल्सियम, सोडियम, फास्फेड, एसिड होता है ।
अगर इन सबकी मात्रा बढ़ जाये तो Meningistis रोग हो जाता है जिससे बुखार लगातार रहता है । यह तरल चयापचय की क्रिया को यह नियन्त्रित करता है व मस्तिष्क की रक्षा करता है । यह मस्तिष्क तक ऑक्सीजन और पौष्टिक तत्व पहुँचाता है ।