ADVERTISEMENTS:
Read this essay to learn about the relations between organisms and their environment in Hindi language.
सजीवों की जीवनचर्या को प्रभावित करनेवाली चारों ओर की परिस्थिति को पर्यावरण कहते हैं । इसमें जैविक और अजैविक घटकों और सभी प्रकार की ऊर्जाओं का समावेश होता है । हमारे आसपास के परिसर में प्राकुतिक और मानव निर्मित घटकों का समावेश रहता है । पार्यावरण से मानव जीवन प्रभावित रहता है । इससे अलग-अलग प्रदेशों के मानवीय जीवन मे अंतर पाया जाता है ।
प्राकृतिक पर्यावरण:
ADVERTISEMENTS:
प्रकृति में स्थित सभी घटकों का समावेश प्राकृतिक पर्यावरण में होता है । पृथ्वी के भूरूप, जलवायु, जल, खनिज, मिट्टी, सूर्यप्रकाश, प्राणी, वनस्पतियाँ आदि प्राकृतिक पर्यावरण के घटक हैं । इन घटकों का जीवसृष्टि पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में प्रभाब पड़ता है ।
सांस्कृतिक पर्यावरण:
मनुष्य ने अपना जीवन संपन्न बनाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके प्राकृतिक पर्यावरण में अनेक परिवर्तन किए हैं । इनमें से ही बस्तियाँ, सड़कें, कृषि, बाँध, आदि घटकों की निर्मिति हुई है । इस प्रकार मानव निर्मित सभी घटकों का समावेश सांस्कृतिक पर्यावरण में होता है ।
पर्यावरण के सजीव (जैविक) और निर्जीव (अजैविक) घटकों में पारस्परिक क्रियाएँ होती रहती हैं । पर्यावरण के सभी जैविक घटक एक-दूसरे पर और अजैविक घटकों पर निर्भर रहते हैं । हम सांस लेते हैं और उच्छवास से हवा बाहर छोड़ते हैं । अर्थात हवा जैसी अजैविक घटक के साथ हमारी (जैविक घटकों की) पारस्परिक क्रिया होती है । वनस्पतियाँ प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा सौर ऊर्जा का उपयोग करके अपना भोजन बनाती हैं । यह भी जैविक और अजैविक घटक की पारस्परिक क्रिया है ।
ADVERTISEMENTS:
पारिस्थितिकी विज्ञान:
किसी प्रदेश में, झीलों में कौन-कौन-से जीव रहते हैं ? जीवन के लिए आवश्यक भोजन और ऊर्जा वे कैसे प्राप्त करते हैं ? एक-दूसरे के साथ उनके संबंध कैसे होते हैं ? कालानुरूप पर्यावरण के अजैविक घटकों में कौन-से परिवर्तन होते हैं ? ऐसे परिवर्तनों का जैविक घटकों पर क्या प्रभाव पड़ता है ? ऐसे अनेक प्रश्नों का अध्ययन करनेवाले विज्ञान को पारिस्थितिकी विज्ञान कहते हैं ।
परिसंस्था:
पारिस्थितिकी विज्ञान के अध्ययन का विषय संपूर्ण पृथ्वी अथवा उसका बहुत छोटा-सा हिस्सा भी हो सकता है । यह अध्ययन जीवनसमूह के साथ अर्थात किसी प्रदेश के एक-दूसरे से जुड़े हुए सजीवों से संबंधित होता है । एक-दूसरे पर निर्भर रहनेवाले और अजैविक घटकों के साथ सतत पारस्परिक क्रिया करनेवाले जीवसमूह को परिसंस्था कहते हैं । परिसंस्था भौगोलिक क्षेत्र के संदर्भ में पहचानी जाती है । उदा., जलीय परिसंस्था, वन परिसंस्था, चरागाह परिसंस्था, तालाब परिसंस्था, आदि ।
हमारी पृथ्वी सर्वसमावेशक परिसंस्था है । इसी तरह जैविक घटकों से युक्त कोई तालाब या छोटा-सा जलाशय भी परिसंस्था है । परिसंस्था के जैविक घटकों का उत्पादक-भक्षक और विघटक में वर्गीकरण किया जाता है । भक्षक वर्ग के प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक उपवर्ग किए जाते हैं । आकृति ११.१ देखो ।
परिसंस्था का कार्य:
सूर्य संपूर्ण जीवसृष्टि के लिए ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है । भूपृष्ठ की हरी वनस्पतियाँ सौर ऊर्जा का उपयोग करके प्रकाश संश्लेषण द्वारा अपना भोजन तैयार करती है । इसलिए इन्हें उत्पादक कहा जाता है । वनस्पतियों द्वारा निर्मित भोजन में वनस्पतियाँ कुछ भोजन का उपयोग स्वयं की वृद्धि के लिए करती हैं । शेष आहार ऊर्जा के रुप में संग्रहित करके रखती हैं ।
शाकाहारी प्राणी वनस्पतियों का भोजन के रूप में उपयोग करते हैं । फलस्वरूप वनस्पतियों द्वारा संग्रहित की गई यह कार्बनिक ऊर्जा शाकाहारी प्राणियों के शरीर में प्रविष्ट होती है । शाकाहारी प्राणी मांसाहारी प्राणियों के अथवा मानव जैसे उभय आहारवाले प्राणियों का खाद्य बन जाते हैं ।
ADVERTISEMENTS:
यह ऊर्जा भोजन के रूप में मांसाहारी प्राणियों के शरीर में प्रविष्ट होती है । शाकाहारी और मांसाहारी प्राणी ग्रहण की हुई यह ऊर्जा अपने विविध शारीरिक कार्यों के लिए उपयोग में लाते हैं । इस तरह परिसंस्था का कार्य चलता रहता है । आकृति ११.२ देखो ।
इसमें वनस्पति (घास) उत्पादक है, खरगोश केवल हरी वनस्पति का भोजन के रूप में उपयोग करनेवाला प्राधमिक भक्षक है । खरगोश बड़े साँपों का भोजन है । इसलिए साँप जैसे मांसाहारी प्राणियों को द्वितीयक भक्षक कहते हैं । साँप गरुड़ का भोजन है । अत: गरुड़ इस भोजन शृंखला का तृतीयक भक्षक अथवा सर्वोच्च भक्षक है ।
मृत प्राणियों के अवशेषों के विघटन का कार्य भिन्न-भिन्न कृमि, कीटक, जीवाणु, फफूँद, कवक आदि घटक करते हैं । अत: उन्हें विघटक कहते हैं । इन विघटकों द्वारा प्राणियों के शरीर के कार्बनिक पदार्थों का अकार्बनिक पदार्थों में रूपांतरण किया जाता है । वे फिर मृदा में मिल जाते हैं और पुनः वनस्पतियों के लिए पोषक घटकों के रूप में उपलब्ध होते हैं ।
ADVERTISEMENTS:
ऊर्जा संक्रमण: भोजन शृंखला:
उत्पादक सौर शक्ति की सहायता से भोजन तैयार करते हैं । भोजन का अर्थ ऊर्जा है । यह ऊर्जा उत्पादक से प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक भक्षक और विघटक आदि द्वारा संक्रमित होती हुई पर्यावरण में विलीन हो जाती है । इस तरह ऊर्जा चक्र पूर्ण होता है । ऊर्जा अर्थात भोजन के क्रमिक संक्रमण को भोजन शृंखला कहते हैं । भोजन संक्रमण के विविध स्तर को पोषण स्तर कहते हैं ।
भोजन जाल:
कोई भक्षक अपना भोजन अनेक मार्गों से प्राप्त कर सकता है । इसी से पर्यावरण में एक ही समय अनेक भोजन शृंखलाएँ अस्तित्व में आती हैं । भोजन संक्रमण की विभिन्न भोजन शृंखलाएँ आपस में जुड़कर भोजन जाल तैयार करती हैं । ऐसा भोजन जाल आकृति ११.३ में दिखाया गया है । भोजन शृंखला और भोजन जाल के अध्ययन से हम परिसंस्था की कार्यप्रणाली को समझ सकते हैं ।
भोजन पिरामिड:
परिसंस्था में विविध पोषण स्तर पर ऊर्जा का हस्तांतरण होते समय प्रत्येक स्तर पर कुछ मात्रा में ऊर्जा नष्ट होती जाती है । उत्पादक के स्तर से भक्षक के स्तर की ओर जाते समय अधिक मात्रा में ऊर्जा नष्ट होने से ऊर्जा की आपूर्ति कम होती जाती है ।
अत: प्रत्यक स्तर पर जीवसंख्या और जैविक द्रव्यमान कम होता दिखाई देता है । इन सभी प्रक्रियाओं की अनुपातबद्ध आकृति बनाने पर वह भोजन पिरामिड जैसी दिखाई देती है । इसे भोजन पिरामिड कहते हैं । आकृति ११.४ देखो ।
ADVERTISEMENTS:
भोजन पिरामिड के किसी स्तर पर सजीवों की संख्या कम या अधिक होने पर अन्य स्तर के जीवों की संख्या पर भी प्रभाव पड़ता है ।
पर्यावरण संतुलन:
किसी प्रदेश में जब विविध पोषण स्तरों पर सजीवों की संख्या और जैव द्रव्यमान उचित अनुपान में होता है तब पर्यावरण संतुलित माना जाता है । इसमें प्राकृतिक आपदा अथवा मानवीय हस्तक्षेप होने से परिवर्तन आता है और पर्यावरण का संतुलन बिगड़ जाता है ।
मानव ने बुद्धि के बल पर स्वयं के विकास के लिए प्राकृतिक पर्यावरण में से अनेक घटकों का उपयोग किया है । विज्ञान और प्रौद्योगिकी बल पर पर्यावरण के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके मनुष्य ने अपना सांस्कृतिक पर्यावरण निर्मित किया है । ऐसा करते समय मनुष्य ने हजारों हेक्टर वनों को नष्ट किया है । अत: उन क्षेत्रों में पर्यावरण का संतुलन बिगड़ गया है । इस प्रकार पर्यावरण के सभी घटकों पर संतुलन के बिगड़ने का विपरीत प्रभाव पड़ता है ।
ADVERTISEMENTS:
मानव अन्य सजीवों की अपेक्षा बुद्धिमान होते हुए भी पर्यावरण का ही एक घटक है । प्राकृतिक पर्यावरण में परिवर्तन करने की क्षमता केवल मनुष्य के पास है । अत: हमें यह समझ लेना चाहिए कि प्रकृति के हर घटक की सुरक्षा करना ओर उसका उचित उपयोग करना यह मानव का ही कर्तव्य है ।